Sunday, May 23, 2010

अब तो माफ कर दो शाहरुख, अनिल कपूर, सलमान......

बॉलीवुड का एक प्रशंसक होने के नाते मैं आधा दर्जन नामचीन रहे कलाकारों से सिर्फ एक ही निवेदन करना चाहूंगा-अब तो माफ कर दो, फिर किसी नई फिल्म में एक्टिंग मत करिएगा। फिल्म उद्योग से जुड़े रहने के लिए आपको सिर्फ एक्टिंग करना जरूरी नहीं है। आप सभी तरह के रोल कर चुके हैं। वही घिसे-पिटे अंदाज और स्टंट से ज्यादा दर्शक नहीं खींच पा रहे हैं। फिर भी लगातार फिल्में करके आप दर्शकों पर इमोशनल अत्याचार क्यों कर रहे हैं। इन नामचीन रहे कलाकारों में शाहरुख खान, सलमान खान, अनिल कपूर, नाना पाटरेकर और संजय दत्त जैसे कलाकार शामिल हैं।
आप सोच रहे होंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं। मुझे दिक्कत इस बात की है कि ये कलाकार सिर्फ फिल्म बेहूदी और घिसी-पिटी एक्टिंग ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उसे चलाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे भी अपना रहे हैं। चैनलों की सुर्खियों में अपनी फिल्मों को लाने के लिए अभियान तक चलाए जाते हैं। शायद ही ऐसा कोई हथकंडा हो जो अपनाया न जाए।
शाहरुख खान को ही लीजिए। दर्शक माने या न माने खुद को जबरदस्ती सुपरस्टार साबित करने के लिए क्या नहीं कर रहे हैं। शाहरुख की पिछली दो फिल्मों को ही लीजिए। माई नेम इज खान को चलाने के लिए उन्होंने किस तरह से अपने धर्म का प्रयोग किया, किसी से छुपा नहीं है। शिवसेना ने भी इसमें उनका साथ दिया। इससे पहले आई उनकी फिल्म रब ने बना दी जोड़ी में उन्होंने अपने सिक्स पैक एब्स की पब्लिसिटी का सहारा लिया था। क्या आप सोच सकते हैं कि पांच फुट के शरीर पर एब्स का क्या मतलब होता है। खुद को सेक्सी सुपर स्टार बताने वाले शाहरुख बस इन्हीं पब्लिसिटी स्टंट के सहारे फिल्म इंडस्ट्री में खुद को घसीट पा रहे हैं।
खुद को अमिताभ बच्चन के समकक्ष रखने की कोशिश भी उनकी सोच को बताती है। अमिताभ की तरह उन्होंने कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम पेश करने की कोशिश की मगर दर्शकों ने उन्हें नकार दिया। इसी तरह अमिताभ की सुपरहिट फिल्म डॉन की रीमिक्स भी दर्शकों ने नकार दी। इन सबके बाद भी शाहरुख मीडिया मैनेजमेंट के सहरारे खुद को जबरदस्ती सुपर स्टार बताने पर तुले हैं।
यहां मैं आमिर खान का उदाहरण देना चाहूंगा जो शाहरुख के समकालीन कलाकार है मगर कभी धर्म का या किसी स्टार के साथ खुद की होड़ करके सुर्खियों में नहीं रहते। अपनी कलाकारी और कुछ नया करने की ललक उन्हें सुपरहिट बनाए हुए है। यह उनका बड़पप्पन है कि वह फिर भी खुद को सुपर स्टार नहीं कहते हैं।
इसी कड़ी में मैं अनिल कपूर और संजय दत्त को भी जोड़ना चाहूंगा। इन्होंने कब हिट फिल्म दी है, याद नहीं आता। मगर हर महीने -दो महीने पर मुर्झाए चेहरे और रिपीट एक्टिंग के साथ किसी नई फिल्म में टीवी स्क्रीन पर नजर आ जाते हैं।
मेरा इन सभी से निवेदन है कि अब और फ्लॉप फिल्में देकर बॉलीवुड पर बोझ मत बनिए। ये कलाकार अपने अनुभव के सहारे बॉलीवुड में सकारात्मक और रचनात्मक योगदान के सहारे भी बने रह सकते हैं।

Wednesday, May 19, 2010

बजरीली जमीन में चटख रंगों की रौनक (जोधपुर यात्रा संस्मरण)

जिंदगी में पहली बार राजस्थान को जानने और समझने का मौका मिला। अवसर था जोधपुर स्थित काजरी में चल रहे एक प्रोजेक्ट पर खबर तैयार करने का। 
व्यस्तता के बीच (11 से 19 मई के बीच एमबीए के पेपर थे) मैंने 13 मई को जोधपुर जाने का निश्चय किया। मंडोर एक्सप्रेस के एसी कोच से मेरी यात्रा दिल्ली से शुरू हुई। यहीं से शुरूआत हुई राजस्थान को समझने और राजस्थान के लोगों को परखने की। अभी तक मेरा राजस्थान का ज्ञान सीमित था। यह सिर्फ हाईस्कूल तक पढ़े गए इतिहास के ज्ञान जितना था। हालांकि पाकिस्तान के साथ लड़ाई के दौरान यहां के राष्ट्रवादियों और देशभक्तों के किस्सों ने मुझे हमेशा प्रभावित किया है।
एसी थर्ड कोच के सीट नंबर 42 पर पहुंचते ही मैंने पाया कि मेरे सहयात्री दो नवविवाहित जोड़े हैं जो जम्मू से लौट रहे हैं। यह दोनों नवयुगल जोधपुर के ही रहने वाले थे। खाने-पीने और रहन-सहन पर पश्चिम का प्रभाव पर बोलने और सोचने में राजस्थान की झलक। फ्यूजन का यह जीता-जागता उदाहरण देखने में अच्छा लगा। मैंने पाया कि पढ़े-लिखे होने के बावजूद अपनी परंपरागत सोच को यह बदल नहीं पाए हैं। खुद को मारवाड़ी जैन बताने वाले इस युगल ने अपनी एक और सहयात्री के साथ बातचीत की शुरूआत उनका गोत्र जानकर शुरू की। यहीं से आप उनकी परिपक्वता और मानसिक विकास का अंदाज लगा सकते हैं।
इस यात्रा के दौरान मैंने पाया कि दिल्ली और यूपी की भीड़-भाड़ वाली जिदंगी से उलट राजस्थान में जनसंख्या घनत्व काफी कम है। दूर-दूर तक सिर्फ जमीन ही जमीन और खेजड़ी के पेड़ दिखाई देते हैं। मकान कई किलोमीटर के अंतर पर हैं। बिजली के आधारभूत संसाधन इन इलाकों में नहीं हैं। हां, संकरी सड़क और रेल का मजबूत नेटवर्क जरूर इस सुनसान जिंदगी की मांग भरता हुआ लगता है।
उत्तर भारत के रेलवे स्टेशनों की धक्का मुक्की और भीड़भाड़ सभी ने झेली होगी। इसके उलट राजस्थान में स्टेशनों पर अंगुली पर गिनने लायक यात्री मिलेंगे। इस सुनसनान बजरीली जमीन पर विकास और मान्यताओं का मिला-जुला असर देखने को मिलता है। घरों पर डिश टीवी का एंटीना और सोलर पैनल जिंदगी की कठिनाइयों से लड़ते हुए लगते हैं। महिलाओं की लाल और अन्य चटख रंगों की धोती उन्हें उत्तर भारत की अन्य महिलाओं से अलग करती है। पुरुष भी चटख रंहो की बड़ी सी पगड़ी पहने इतराते हुए लगते हैं।
पानी की कमी के बावजूद स्टेशन पर कुछ स्वयंसेवक दौड़कर आते हैं और आपकी बोतल या अन्य किसी बर्तन को पीने के पानी से भर देते हैं। यह नजारा भी मुझे राजस्थान में पहली बार देखने को मिला।कम आबादी, बजरीली जमीन और चटख रंगों के इस समन्वय से राजस्थान कुछ अलग ही रौनक देता लगता है।

Wednesday, April 21, 2010

shiv shanakar sharma

Sunday, April 18, 2010

Hi, Everyone. I have entered in the blogger world.